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कविता

अंग-विन्यास

स्कंद शुक्ल


आदमी शरीर लिए जन्मा
उसमें अलग-अलग अंग थे
और उन अंगों का अपना अलग-अलग विधान।
पैर सबको ढोने लगे
पेट सबको पालने लगा
बाँहों ने जिम्मा सम्हाला सबकी सुरक्षा का
और मुँह ने सबको, सबके जिम्मे बताने-सिखाने का।
बात यहाँ तक ठीक थी
लेकिन फिर एक दिन जब पैरों ने
मुँह बनने की इच्छा जताई
तो उन्हें जूते दिखाए गए
याद दिलाया गया उन जूतों में उनका ठिकाना है
और यह बताया गया कि उनके पास जीभ और दाँत नहीं हैं
इसलिए शिक्षा और स्वाद उनके लिए नहीं है
अपनी पंजों-एड़ियों से वे वही करें जो आज तक इतने साल करते आए हैं
यह तो बहुत पहले तय कर लिया गया था कि कौन क्या करेगा
कि किसका किरदार क्या होगा
तो आज फिर यह सवाल क्यों उठाया जाता है?
और बहुत से जरूरी काम भी तो हैं शरीर के
आओ, क्यों न हम मिलकर उनपर चर्चा करें।
एक अनुमोदन भरे ठहाके से पेट फूला,
और आज्ञाकारी भुजाओं ने पैरों को मोजों में कसकर
उन्हें वहीं पहुँचा दिया जहाँ उनका पुराना ठिकाना था।
पैरों ने खूब कोशिश की भरोसा जीतने की,
यह समझाया कि उनमें बिवाइयाँ तो फूटा ही करती हैं
उनमें से किसी एक को वे गहरा कर देंगे, मुँह के छेद सा
स्वाद और भाषा की गहराई समेटने के लिए
और किसी एक उँगली को पतला-मुलायम-सुर्ख करके
जीभ भी पैदा करने का प्रयास करेंगे।
और हो सकता है कि इतनी लगन देख कर
दाँतों की पैदावार भी अंततः होने ही लगे।
मगर बात बन न सकी, कैसे बनती?
भला अंग-विन्यास भी कभी ऐसे बदला है?
इसलिए मुँह का स्वस्तिवाचन जारी रहा
और पसीने में तर पैर चमड़े के ठिकानों से उन्हें हसरत लिए सुनते रहे,
और फिर अपनी ऐच्छिक राह पर चल पड़े
फिर उनमें बिवाइयाँ फूटी, उनमें से एक मुँहनुमा गहरी हुई
एक पतली उँगली ने जीभ की भूमिका में खुद को ढाल लिया
और ज्यों ही दाँतों की पहली पंक्ति फूटने को हुई
तो नोकदार जीभ चलाकर मुख ने पूछ लिया अचानक चुभता सवाल
कि इतनी देर से श्रम-साधन में लगे पाद-युगल!
तुम तो परंतु दो हो,
और मेरा किरदार एक,
सोच तो लो आखिरकार
दोनों में से कौन उसे निभाएगा?


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